मंज़िल

 

मंज़िल 



कर इन रिवायतों को तगाफुल
अब उड़ आज़ाद अर्श को छूना है
बरहाल हयात अदावत हो
अब अफ़साना खुद बुनना है |

इस ज़िंदांन को छोड़, ऊँची परवाज़ पकड़नी है
अब इस आतिश के सरहद से भी पार गुज़ारना है |

मकबूल मेरे,
वो पासबान भी देखेगा 
फितूर तेरा, वो तलब तेरी
कर खुद पे इनायत बस इतनी
गर जो महताब को सीना है |

देखी है शरर तेरे चश्म में मैंने
ज़हनसीब मेरे, वो ज़ाया ना कर
अब नज़ाकद, लिहाज़ से बेपर्दा हो
गर जो क़मर को छूना है |

न हो मरहूम तू मसलों से
राब्ता तो है हाफ़िज़ा तेरी
तवज्जो रहे कि कासिद की तहूमत भी 
न रोक सके वो रफ़्तार तेरी |

अब मुस्तकिल ना हो
ना हो कुफ़्र तू खुदा से मेरे
माज़ी लिखा हो जैसा भी
अब इतिहास तुझ ही को लिखना है |

जब होगा शुमार तेरा नाम मुझमे
जब होगा खुद से तू आज़ाद
जब आसमान का सीना चीरेन्गे
वो कल तक थे जो नाज़ुक पंख तेरे
वो कोशिश, कुछ और ही होगी 
वो नूर तेरा, कुछ और ही होगा |


- ऋतिज्ञा श्री

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