POEM - क्या कभी सोचा था ?

क्या कभी सोचा था ? एक सफर क्या कभी सोचा था कि ऐसा भी होगा ? कि बेज़ुबा ये पथरीले रस्ते , जिंदगी का अद्भुत एक पाठ सिखलायेंगे । क्या कभी सोचा था कि ऐसा भी होगा ? कि बिना रुके इस आगे बढ़ते सफर में , जिंदगी में ठहराव के असल मायने समझ आएंगे । क्या सोचा था, कुछ यूँ भी होगा कि कल के मिले राही सफर में कारवां कुछ यूँ बुन जाएंगे, कि यादों के गुलिस्ताँ में नए फूल कुछ खिल जायेंगे । जिसमें ताज़गी है महक है नए रंगीन ज़माने की , जिसमे आरज़ू है आबरू है हर पल को महकाने की । । क्या कभी सोचा था कि ऐसा भी होगा ? कि एक दूजे को समझते समझते , कुछ अनकही बातें भी समझ जायेंगे और जानने की इन कोशिशों में कुछ नया खुद में भी जान जायेंगे । । कुछ ऐसा लगता है कि इन लम्हों में ग़मों से जैसे दूरी हुई हो । कुछ ऐसा लगता है कि एक बिनमांगी ख्वाहिश जैसे पूरी हुई हो । । ऋ तिज्ञा श्री Wrote this poem on 23rd Oct 2019. Describes the trip of 10 unknown people starting the journey to 10 friends ending it. Amazing trip to remember. Wish we all get many more such trips...